Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
__ समीक्षा-जो तत्त्व सामान्यतः जड़ अथवा भूत कहा जाता है वही जैन दर्शन में 'पुद्गल' कहा गया है । 'पुद्गल' पद में दो शब्द हैं-'पुद्' और 'गल' । 'पुद्' का अर्थ है पूरण यानी वृद्धि और 'गल' का अर्थ है गलन यानी ह्रास । इस प्रकार पुद्गल का अर्थ होता है वृद्धि तथा ह्रास द्वारा विविध रूपों में परिवर्तित होनेवाला तत्त्व अथवा द्रव्य । जैन दर्शन-प्रतिपादित षड्द्रव्यों में केवल पुद्गल ही ऐसा द्रव्य है जो वृद्धि एवं ह्रास द्वारा परिवर्तन को प्राप्त होता है। अन्य द्रव्यों में परिवर्तन अवश्य होता है किन्तु वृद्धि व ह्रास द्वारा नही अपितु अन्य प्रकार की प्रक्रियाओं द्वारा। दूसरे शब्दों में, वृद्धि एवं ह्रासरूप क्रियाएं केवल पुद्गल में ही होती हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। पुद्गल द्रव्य का ही एक रूप ( पर्याय ) दूसरे रूप में वृद्धि तथा ह्रास द्वारा परिवर्तित होता है।
पुद्गल के विशेष धर्म या गुण चार हैं : स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण । शब्द भी पौद्गलिक होता है । स्पर्शादि चार गुणों तथा शब्दों को इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है । स्पर्श का स्पर्शनेन्द्रिय, रस का रसनेन्द्रिय, गन्ध का घ्राणेन्द्रिय, वर्ण का चक्षुरिन्द्रिय तथा शब्द का श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण होता है । इस प्रकार पुद्गल विविध ज्ञानेन्द्रियों का विषय बनता है । वर्ण अर्थात् रूप की प्रधानता के कारण पुद्गल को रूपी ( मूर्त) कहा जाता है। हमारी इन्द्रियां रूपी पदार्थों अर्थात् पौद्गलिक वस्तुओं का ज्ञान करने में ही समर्थ हैं । अरूपी अर्थात् अपोद्गलिक पदार्थ इन्द्रियज्ञान के विषय नहीं बनते । जीव (आत्मा), धर्म, अधर्म, आकाश और काल अरूपी हैं । इनका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता। ये या तो मन की चिन्तनशक्ति (अन्तनिरीक्षण, अनुमान, मागम
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