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जैन धर्म-दर्शन मुक्त आत्माएं सदैव स्थितिशील रहती हैं। चन्द्र आदि हमेशा गतिशील रहते हैं । अतः गति एवं स्थिति दोनों ही स्वाभाविक हैं, दोनों ही यथार्थ हैं तथा दोनों के लिए दो भिन्न-भिन्न माध्यम मानना युक्तिसंगत है । ___स्वयं गति करनेवाले जीव एवं पुद्गल की जो सहायता करता है वह धर्म है। गति का अर्थ है एक देश से दूसरे देश में अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्रिया । धर्म वह तत्त्व है जो इस प्रकार की क्रिया में सहायक होता है । जिस प्रकार मछली स्वयं तैरने की क्रिया करती है किन्तु इसके लिए पानी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल स्वयं गति करते हैं किन्तु उसके लिए धर्म का माध्यम आवश्यक होता है। मछली में तैरने का सामर्थ्य होते हुए भी पानी के बिना तैरने की क्रिया नहीं हो सकती। ठीक इसी प्रकार जीव और पुद्गल में गति करने की क्षमता होते हुए भी धर्म द्रव्य के अभाव में गति संभव नहीं होती। धर्म सारे लोक में व्याप्त है। गति के माध्यम के रूप में धर्म द्रव्य का अस्तित्व केवल जैन दर्शन में ही स्वीकार किया गया है अथवा अन्यत्र भी इसका सद्भाव दृष्टिगोचर होता है ? अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में गति को यथार्थ मानते हुए भी गति के माध्यम के रूप में धर्म जैसे किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया गया। हां, आधुनिक भौतिक विज्ञान 'ईथर'' के रूप में गति-सहायक एक ऐसा तत्त्व अवश्य मानता है जिसका कार्य धर्म द्रव्य से मिलता-जुलता है। यह तत्त्व 1. Ether. २. न्याय-वैशेषिक दर्शन में आकाश को 'ईथर' कहा जाता है।
इसका गुण अथवा कार्य शब्द है ।
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