Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्वविचार
२१३ है-अवगाह देता है वह आकाश है ।' यह सर्वव्यापी है, एक है, अमूर्त है और अनन्त प्रदेशवाला है। इसमें सभी द्रव्य रहते हैं । यह अरूपी है । आकाश के दो विभाग हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । जहाँ पुण्य और पाप का फल देखा जाता है वह लोक है । लोक का जो आकाश है वह लोकाकाश है । जैसे जल के आश्रयस्थांन को जलाशय कहते हैं उसी प्रकार लोक के आकाश को लोकाकाश कहते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आकाश जब एक है-अखण्ड है तब उसके दो विभाग कैसे हो सकते हैं ? लोकाकाश और अलोकाकाश का जो विभाजन है वह अन्य द्रव्यों की दृष्टि से है, आकाश की दृष्टि से नहीं। जहाँ पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल रहते हैं वहीं पुण्य और पाप का फल देखा जाता है, इसलिए वही लोकाकाश . है। जिस आकाश में यह नहीं होता वह अलोकाकाश है। वैसे सारा आकाश एक है, अखण्ड है, सर्वव्यापी है। उसमें कोई भेद नहीं हो सकता । भेद का आधार अन्य है । आकाश की दृष्टि से लोकाकाश और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है। आकाश सर्वत्र एकरूप है। __ आकाश का लक्षण बताते हुए यह कहा गया कि अवकाश देना आकाश का धर्म है। लोकाकाश पाँच द्रव्यों को अवकाश देता है, अतः उसे हम आकाश कह सकते हैं। अलोकाकाश किसी को आश्रय नहीं देता, ऐसी दशा में उसे आकाश क्यों कहा जाय ? इस शंका का समाधान इस प्रकार किया जा सकता है कि आकाश का धर्म अवकाशदान है, किन्तु आकाश अवकाश उसे ही दे सकता है जो उसके अन्दर रहता है । अलोकाकाश में कोई भी द्रव्य नहीं रहता तो फिर आकाश अवकाश किसे दे ? हाँ, यदि वहाँ कोई द्रव्य होता और फिर भी आकाश १. आकाशस्यावगाहः ।-तत्त्वार्थसूत्र, ५.१८.
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