Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
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अत्यन्त सूक्ष्म एवं पतले तरल पदार्थ के रूप में है जो सारे जगत में व्याप्त है ।
अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायता पहुँचाता है । जिस प्रकार धर्म गति में सहायक है उसी प्रकार अधर्म स्थिति में सहायक है। धर्म की तरह अधर्म भी सर्वलोकव्यापी है । जैसे वृक्ष की छाया पथिकों के विश्राम में सहायक होती है वैसे ही अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होता है ।
धर्म गति का माध्यम अथवा सहायक है, यह बात उदाहरण आदि से स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है किन्तु अधर्म किस प्रकार स्थिति का माध्यम अथवा सहायक है, स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आता । कोई पदार्थ जब गति करता हुआ रुक जाता है तो उसे हम स्थित कहते हैं। जैसे मछली पानी की सहायता से चल रही हो और चलते-चलते पानी में ही रुक जाय तो वह गतिशील न रहकर स्थितिशील हो जायगी । इस स्थिति में उसे पानी के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ की सहायता कैसे मिली ? हां, यदि वह भूमि पर स्थित होती है तो भूमि उसकी स्थिति में सहायक कारण अवश्य मानी जायगी । पथिक और वृक्ष का उदाहरण ही लें। जैसे पानी के बिना मछली का तैरना संभव नहीं क्या वैसे ही वृक्ष की अथवा किसी अन्य प्रकार की छाया के बिना पथिक विश्राम नहीं कर सकता ? इस कठिनाई को दूर करने के लिए एक अन्य उदाहरण भी दिया जाता है । जिस प्रकार पृथ्वी अश्व आदि प्राणियों की स्थिति में सहायक होती है उसी प्रकार अधर्म जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होता है । मूल प्रश्न यह है कि अधर्म स्थिति में किस ढंग से अथवा क्या सहायता करता है ? जैसे यह कहा जा सकता है कि धर्म के
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