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तत्त्वविचार
२०९ गति करते हैं। गति करनेवाले ये दोनों तत्त्व सदैव गतिशील नहीं होते अर्थात् हमेशा गति नहीं किया करते अपितु कहीं पर रुकते भी हैं अर्थात् स्थितिशील भी होते हैं । इस प्रकार जीव और पुद्गल स्थितिशील तथा गतिशील दोनों ही होते हैं। शेष तत्त्व नित्य अवस्थित हैं । जैन दर्शन गति और स्थिति को जीव तथा पुद्गल की स्वकृत क्रियाएं मानता हुआ भी इनके लिए दो विशेष माध्यम स्वीकार करता है। ये माध्यम हैं धर्म और अधर्म । धर्म गति का माध्यम है' तथा अधर्म स्थिति का।
— गति और स्थिति दोनों के लिए दो माध्यम स्वीकार न करते हुए यदि इन दोनों में से किसी एक को जीव और पुदगल का सहज स्वभाव मान लिया जाय तथा शेष एक के लिए केवल एक माध्यम स्वीकार किया जाय तो क्या हानि है ? ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि गति और स्थिति दोनों ही क्रियाएं सहजरूप से जीव एवं पुद्गल में पाई जाती हैं। न केवल स्थिति ही इनका स्वभाव है और न केवल गति ही। किसी समय किसी में स्थिति होती है तो किसी समय किसी में गति । किसी समय कोई स्थिति से गति में आता है तो किसी समय कोई गति से स्थिति में। ऐसा कोई नियम नहीं है कि सब पदार्थ स्वभाव से स्थितिशील ही हों अथवा गतिशील ही। लोक में चारों प्रकार के पदार्थ पाये जाते हैं : १. स्थिति से गति को प्राप्त होनेवाले, २. गति से स्थिति को प्राप्त होनेवाले, ३. सदैव स्थितिशील रहनेवाले, ४. सदैव गतिशील रहनेवाले। स्थिति से गति को तथा गति से स्थिति को प्राप्त होनेवाले पदार्थों के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है।
1. Medium of Motion.
2. Medium of Rest.
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