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जैन धर्म-दर्शन
उसे अवकाश न देता तो हम कह सकते कि अलोक को आकाश नहीं कहना चाहिए किन्तु जब वहाँ कोई भी द्रव्य नहीं पहुंचता तो अलोकाकाश का क्या अपराध है । वह तो अवकाश देने के लिए सर्वदा प्रस्तुत है । कोई भी द्रव्य वहाँ पहुँचे तो सही । इसीलिए अलोक को आकाश मानने में कोई बाधा नहीं है । आकाश-स्वभाव वहाँ भी है । उससे लाभ उठानेवाला कोई भी द्रव्य वहाँ नहीं है । इसीलिए उसे अलोकाकाश कहते हैं ।
लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं । सारे आकाश के अनन्त प्रदेश हैं, यह कहा जा चुका है । अनन्त प्रदेशों में से असंख्यात प्रदेश निकाल देने से जो प्रदेश बचते हैं वे भी अनन्त हो सकते हैं क्योंकि अनन्त बहुत बड़ा है । इतना ही नहीं, अनन्त में से अनन्त निकाल देने पर भी अनन्त रह सकता है क्योंकि अनन्त परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त के भेद से तीन प्रकार का है ।'
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों सर्वलोकव्यापी हैं तो इनमें परस्पर व्याघात क्यों नहीं होता ? व्याघात हमेशा मूर्त पदार्थों में होता है, अमूर्त पदार्थों में नहीं । धर्म, अधर्म और आकाश अमूर्त हैं, अतः एक साथ निर्विरोध रह सकते हैं ।
आकाश अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है, यह ठीक है, किन्तु आकाश को कौन अवकाश देता है ? आकाश स्वप्रतिष्ठित है । उसके लिए किसी अन्य द्रव्य की आवश्यकता नहीं है । यदि ऐसा है तो सभी द्रव्यों को स्वप्रतिष्ठित क्यों न मान लिया जाय ? इसका उत्तर यह है कि निश्चय दृष्टि से तो सभी द्रव्य आत्म-प्रतिष्ठित हैं किन्तु व्यवहार दृष्टि से अन्य द्रव्य आकाशाश्रित हैं । इन द्रव्यों का सम्बन्ध अनादि है । अनादि सम्बन्ध होते
१. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५.१०.२.
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