Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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. तत्त्वविचार
२१७ द्रव्य होते हुए भी पृथ्वी, जल, तेज एवं वायु के समान एक भौतिक तत्त्व ही है। इसका कार्य अवकाशदान (स्थान देना) नहीं अपितु शब्द है। चूंकि जैन दर्शन में शब्द को पुद्गल द्रव्य का कार्य अर्थात् पौद्गलिक माना गया है अतः आकाश को शब्द उत्पन्न करनेवाला द्रव्य न मानते हुए अवकाश देनेवाले द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है । बौद्ध दर्शन में आकाश को शून्य अर्थात् अवस्तु माना गया है । वह आवरणाभाव' अर्थात् वस्तु की आवृति के अभाव के रूप में है। जहाँ कोई पदार्थ नहीं होता अर्थात् जो स्थान पदार्थ के आवरण से रहित होता है उसे हमलोग आकाश का नाम दे देते हैं। वस्तुतः वह कोई भावात्मक तत्त्व, वस्तु या पदार्थ नहीं है । उसे तो अभाव, अवस्तु अथवा शून्य के रूप में ही समझना चाहिए।
जैन दर्शन में गति के लिए धर्म तथा स्थिति के लिए अधर्म द्रव्य माना गया है । । जीव आदि सभी द्रव्यों की सत्ता अनादि काल से है एवं अनन्त काल तक रहेगी। कोई भी पदार्थ या तो गतिशील होगा या स्थितिशील। इन दोनों अवस्थाओं के माध्यमों के रूप में धर्म और अधर्म हैं ही। तो फिर आकाश की क्या आवश्यकता? जिस प्रकार आकाश स्वप्रतिष्ठित है, क्या उसी प्रकार जीवादि स्वप्रतिष्ठित नहीं हो सकते ? किसी शाश्वत द्रव्य के अस्तित्व के लिए किसी अन्य द्रव्य की कल्पना क्यों की जाय? हाँ, किसी पदार्थ के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए अर्थात् स्थानान्तरण के लिए रिक्त स्थान के रूप में अभावात्मक आकाश अवश्य माना जा सकता है । इसे गणितीय आकाश' कहते हैं। इसमें सूक्ष्म
1. Negation of Occupation.
2. Mathematical Space.
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