Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्वविचार
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हुए भी इनमें शरीर - हस्तादि की तरह आधाराधेय भाव घट सकता है | आकाश अन्य द्रव्यों से अधिक व्यापक है, अतः वह सबका आधार है ।
आकाश को कुछ दार्शनिकों ने स्वतन्त्र द्रव्य माना है और कुछ ने नहीं माना । जिन्होंने उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है उनमें से किसी ने भी जैन दर्शन की तरह लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में नहीं माना । पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के इतिहास में रिक्त आकाश (Empty Space ) है या नहीं' इस विषय पर काफी विवाद है, किन्तु इस ढंग के दो अलग-अलग विभाग वहाँ भी नहीं हैं ।
समीक्षा - आकाश क्या है ? इस विषय में दो मत हैं । कुछ दार्शनिक आकाश को रिक्त स्थान के रूप में अर्थात् अभावात्मक मानते हैं, जबकि कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि आकाश भी उसी प्रकार एक भावात्मक तत्त्व है जिस प्रकार कि अन्य तत्त्व | जैन दर्शन आकाश को एक अरूपी अर्थात् अमूर्त भावात्मक तत्त्व मानता है । जो द्रव्य ( तत्त्व) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता है वह आकाश है। दूसरे शब्दों में, आकाश रूपी और अरूपी अर्थात् मूर्त और अमूर्त सबको स्थान देता है किन्तु वह स्वयं अरूपी है। चूँकि आकाश सबका आधार है अतः वह सर्वव्यापी है । आकाश के दो विभाग हैं: लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश में जीव, पुद्गल आदि सब द्रव्य रहते हैं । अलोकाकाश में जीव आदि किसी की भी सत्ता नहीं है । लोकाकाश अथवा लोक सान्त है, जबकि अलोकाकाश अथवा अलोक अनन्त है । आकाश स्वप्रतिष्ठित है अतः उसके लिए किसी अन्य आधार
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