Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
सहायक होता है । धर्म और अधर्मं द्रव्य की यह धारणा जन दर्शन की अप्रतिम देन है ।
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कोई यह शंका कर सकता है कि धर्म और अधर्म मूलतः एक ही द्रव्य के अन्तर्गत हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि ये दोनों लोकाकाश व्यापी हैं अतः दोनों का देश-स्थान एक है। दोनों का परिमाण भी एक है क्योंकि दोनों सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं। दोनों का काल भी एक है क्योंकि दोनों ही का लिक हैं। दोनों ही अमूर्त हैं, अजीव हैं, अनुमेय हैं। इसका समाधान यह है कि इन सारी एकताओं के होने पर भी उन्हें एक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों के कार्य भिन्न-भिन्न हैं। एक का कार्य गति में सहायता देना है तो दूसरे का स्थिति में सहायक होना है । इस प्रकार दो विभिन्न और विरोधी कार्यों के करते हुए दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? द्रव्यत्व की दृष्टि से भले ही एक हों किन्तु अपने-अपने कार्य या स्वभाव की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं ।
धर्म और अधर्म अमूर्त द्रव्य हैं, ऐसी स्थिति में वे गति और स्थिति में कैसे सहायक हो सकते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सहायता देने की समर्थता के लिए मूर्तता अनिवार्य गुण नहीं माना जा सकता । कोई द्रव्य अमूर्त होकर भी अपना कार्य कर सकता है । उदाहरण के लिए आकाश यद्यपि अमूर्त है फिर भी पदार्थ को आकाश -स्थान देता है । यदि आकाश के लिए अवकाशप्रदानरूप कार्य असम्भव नहीं तो धर्म और अधर्म के लिए गति और स्थिति में सहायतारूप कार्यं क्योंकर कठिन है ?
समीक्षा - जीवादि छः तत्त्वों में से जीव और पुद्गल ये दो तत्त्व ऐसे हैं जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं अर्थात्
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