Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन और पुद्गल ही करते हैं, किन्तु उनकी गति में जो सहायक कारण है-माध्यम है वह धर्म है। यदि बिना धर्म के भी गति हो सकती तो मुक्तजीव अलोकाकाश में भी पहुंच जाता । अलोकाकाश में आकाश के सिवाय कोई द्रव्य नहीं है । मुक्तजीव स्वभाव से ही ऊर्ध्व गतिवाला होता है। ऐसा होते हुए भी वह लोक के अन्त तक जाकर रुक जाता है, क्योंकि अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय नहीं है। धर्मास्तिकाय के अभाव में गति नहीं हो सकती इसीलिए ऐसा होता है।
धर्म का लक्षण बताते हुए राजवातिककार कहते हैं कि स्वयं क्रिया करनेवाले जीव और पुद्गल की जो सहायता करता है वह धर्म है । यह नित्य है, अवस्थित है और अरूपी है । नित्य का अर्थ है तद्भावाव्यय । गति (क्रिया) में सहायता देने रूप भाव से कभी च्युत नहीं होना ही धर्म का तद्भावाव्यय है। अवस्थित का अर्थ है जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेशों का हमेशा रहना । धर्म के असंख्यातं प्रदेश हैं। ये प्रदेश हमेशा असंख्यात ही रहते हैं । अरूपी का अर्थ पहले बताया जा चुका है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण रहित द्रव्य अरूपी है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है । जीवादि की तरह धर्म भिन्न-भिन्न रूप से नहीं रहता अपितु एक अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है। यह सारे लोक में व्याप्त है। लोक का ऐसा कोई भी भाग नहीं है जहाँ धर्म द्रव्य न हो । जब यह सर्वलोकव्यापी है तब यह स्वतः सिद्ध है कि उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। १. तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ।-तत्त्वार्थसूत्र, १०.५. २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.१. १६. ३. तत्त्वार्थ सूत्र, ५.४. .
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