Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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मार्ण, रस और गायुक्त ही मानतब्य में आ जाते जन गुणों
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जैन धर्म-दर्शन नहीं हो सकता क्योंकि जहाँ संयोग होगा वहाँ कम-से-कम दो अणु अवश्य होंगे और दो अणुवाला स्कन्ध होता है, न कि अणु ।
वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं-पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ।' इन नौ द्रव्यों में से प्रथम चार अर्थात् । पृथ्वी, अप्, तेज और वायु-इनमें जिन गुणों को मानते हैं वे सब गुण पुद्गल द्रव्य में आ जाते हैं। वैशेषिक वायु को स्पर्श गुणयुक्त ही मानते हैं। वे कहते हैं कि वायु में वर्ण, रस और गन्ध नहीं हैं । जैन दार्शनिक इस बात को नहीं मानते । वे कहते हैं कि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सहचारी हैं । जहाँ इन चारों में से एक भी गुण की प्रतीति होती हो वहाँ शेष तीन गुण भी अवश्य रहते हैं। उनकी सूक्ष्मता के कारण चाहे स्पष्ट प्रतीति न होती हो किन्तु उनका सद्भाव वहाँ अवश्य होता है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारों गुण प्रत्येक भौतिक द्रव्य में रहते हैं। वायु में रूप होता है क्योंकि वह स्पर्शाविनाभावी है, जैसे घट में रूप है क्योंकि वहाँ स्पर्श है। रूप होते हुए भी रूप का ग्रहण क्यों नही होता? क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियाँ स्थूल विषय का ग्रहण करती हैं। जैसे सूक्ष्म गन्ध के रहते हुए भी घ्राणेन्द्रिय से उसका ग्रहण नहीं होता उसी प्रकार वायु में सूक्ष्म रूप रहता है तथापि चक्षुरिन्द्रिय उसका ग्रहण नहीं कर सकती। जैनों की यह मान्यता आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी सच्ची उतरती है । विज्ञान मानता है कि 'निरंतर ठंडा करते रहने से वायु एक प्रकार के नीले रस में परिवर्तित हो जाता है जिस प्रकार कि वाष्प पानी के रूप में परि१. वैशेषिकदर्शन, १.१.५. २. वही, २.१.४. .
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