________________
तत्त्वविचार
२०३ श्वासोच्छ्वास, वाणी और मन का विशेष परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। श्वास को अन्दर खींचना और बाहर निकालना श्वासोच्छवास है। भाषा आदि का व्यवहार वाणी है । मन एक सूक्ष्म आभ्यन्तरिक इन्द्रिय है। वह चक्षुरादि सभी इन्द्रियों के अर्थ का ग्रहण करता है। वैशेषिक दर्शन मन को अणुमात्र मानता है। जैन दर्शन का कहना है कि मन को अणमात्र मानने से सम्पूर्ण इन्द्रिय से अर्थ का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि मन एक अणप्रमाण स्थान पर ही रहता है। मन आशुसंचारी भी नहीं हो सकता क्योंकि वह अचेतन है। अतः मन स्कन्धात्मक है, अणुप्रमाण नहीं।
अब हम औदारिकादि पाँच प्रकार के शरीर का स्वरूप देखेंगे। ओवारिक शरीर :
तिर्यंच और मनुष्य का स्थूल शरीर औदारिक शरीर है। उदर युक्त होने के कारण इसका नाम औदारिक है। रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण हैं।
वैक्रिय शरीर :
देवगति और नरकगति में उत्पन्न होनेवाले जीवों के वैक्रिय शरीर होता है। लब्धिप्राप्त मनुष्य और तिर्यंच भी इस शरीर को प्राप्त कर सकते हैं । यह शरीर साधारण इन्द्रियों का विषय नहीं होता । विभिन्न आकारों में परिवर्तित होना इस शरीर की विशेषता है। इसमें रक्त, मांस आदि का सर्वथा अभाव होता है। आहारक शरीर :
सूक्ष्म पदार्थ के ज्ञान के लिए अथवा किसी शंका के समा
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org