Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्वविचार
१८३ जैन दर्शन पदार्थ-जगत् को इस प्रकार की दृश्य और अदृश्य रेखाओं से विभाजित नहीं करता। यह सही है कि किसी भी वस्तु का ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सीमाओं से आबद्ध होता है किन्तु इससे वस्तु का वास्तविक रूप ज्ञात नहीं होता है, ऐसी बात नहीं है। देश, काल आदि की मर्यादाओं में रहकर भी पदार्थ का वास्तविक रूप जाना जा सकता है । प्रत्येक पदार्थ स्वभावत: एवं सर्वदा देश-कालसापेक्ष होता है अर्थात् क्षेत्र एवं समय से सम्बद्ध होता है। देश-कालनिरपेक्ष वस्तु की कल्पना निराधार है । ऐसी वस्तु कोई हो ही नहीं सकती । देश-कालसम्बद्ध पदार्थज्ञान वास्तविक ही है एवं तदाधारित अस्ति-नास्ति आदि के रूप में विचाराभिव्यक्ति भी यथार्थ ही है। देश, काल एवं विचारकोटियों से वस्तु का वास्तविक स्वरूप आवृत नहीं होता। अणु :
पुद्गल के मुख्यतया दो भेद होते हैं-अणु और स्कन्ध । पुद्गल का वह अन्तिम भाग जिसका फिर विभाग न हो सके, अगु कहलाता है। अणु इतना सूक्ष्म होता है कि वही अपना आदि, मध्य और अन्त है।' अणु के अन्दर इन सबका कोई भेद नहीं होता। पुद्गल का सबसे छोटा हिस्सा अणु है । उससे कोई छोटा नहीं हो सकता । ग्रीक दार्शनिक जेनो ने एक शंका उठाई थी कि पुद्गल का अन्तिम विभाग हो ही नहीं सकता। आप उसका कितना भी छोटे से छोटा विभाग करें, वह रूपादि युक्त होगा, अतः उसका फिर विभाग हो सकता है । वह विभाग
१. अन्तादि अन्तमज्झ, अन्तन्तं व इन्दिए गेज्झ । जं दव्वं अविभागी, तं परमाणु विजाणीहि ॥
--तत्त्वार्थ राजवातिक, ५. २५. १.
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