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जैन धर्म-दर्शन दृष्टिगोचर होता है। ऐसा क्यों ? इस अन्तर का कारण दो प्रकार का है : आन्तरिक एवं बाह्य । आन्तरिक कारण में इन्द्रियभेद, इन्द्रियदोष आदि का समावेश होता है तथा बाह्य कारण में अन्य परिस्थितियों का। इन दो प्रकार के कारणों से वर्णादि के प्रतिभास में अन्तर अथवा दोष आ जाता है । जो कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि पुद्गल में किसी-न-किसी रूप में वर्ण, रस, गन्ध एवं स्पर्श होता ही है। . एक दार्शनिक मान्यता यह है कि हमारा जितना भी ज्ञान या अनुभव है वह दृश्यजगत् तक ही सीमित है। हमें वास्तविक जगत् का ज्ञान नहीं हो सकता । यह कैसे ? हमारे ज्ञान की उत्पत्ति में बहुत से ऐसे कारण हैं जिनसे पदार्थ के वास्तविक रूप का अनुभव नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए मेरे घटज्ञान को लीजिए। इस घटज्ञान में समय का अंश अवश्य रहेगा क्योंकि मैं किसी-न-किसी समय में ही घट का अनुभव करूंगा। इसमें स्थान का भाग भी रहेगा ही क्योंकि मेरा यह घटज्ञान किसी-नकिसी स्थान पर रखे हुए घट के विषय में ही होगा। मैं उस घट को अस्ति या नास्ति अर्थात् है या नहीं है अथवा कार्य या कारण या अन्य किसी रूप में ही जानूंगा। इस प्रकार मेरा घटज्ञान देश, काल और विचार की किसी-न-किसी कोटि से सम्बद्ध-सीमित होगा। तात्पर्य यह है कि हमारे ज्ञान में देश, काल और विचार की मर्यादाएं हैं। हमें इन सब मर्यादाओं के बीच पदार्थ जैसा दिखाई देता है वैसा ही हम उसे जानते हैं। वास्तव में पदार्थ कैसा है अर्थात् देश, काल और विचार की सीमाओं से परे वस्तु का क्या स्वरूप है, इसका ज्ञान हमें नहीं हो सकता । हम दृश्य जगत् का ज्ञान कर सकते हैं, वास्तविक जगत् का नहीं । पदार्थ जिस रूप में हमारे सामने प्रतिभासित होते हैं उस रूप में हम उन्हें जान सकते हैं, अपने असली रूप में नहीं।
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