Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
१८१ आदि ) द्वारा जाने जाते हैं या इनका आत्मा द्वारा साक्षात्कार होता है। ___क्या वर्णादि धर्म वस्तुतः पुद्गल में हैं या हमारी इन्द्रियों का पदार्थों के साथ अमुक प्रकार का सम्बन्ध होने पर हमें वैसी प्रतीति होने लगती है? दूसरे शब्दों में, वर्णादि पुद्गल के अपने धर्म हैं या हमलोग इन धर्मों का पुद्गल में आरोप करते हैं ? यह तो नहीं कहा जा सकता कि पुद्गल में वर्णादि गुणों का सर्वथा अभाव होता है तथा हमारी इन्द्रियाँ इन गुणों को अमुक अवस्थाओं में स्वतः उत्पन्न कर लेती हैं । वर्णादि के अभाव में तो पुद्गल का ही अभाव हो जायगा । जब पुद्गल ही अभावरूप हो जायगा तो वर्णादि की उत्प त का प्रश्न ही नहीं उठेगा। हां, यह अवश्य माना जा सकता है कि इन्द्रियादि का पदार्थ के साथ अमुक प्रकार का सम्बन्ध होने पर वर्णादि की प्रतीति होती है । इसका अर्थ यह नहीं कि इन्द्रियां वर्णादि गुणों को उत्पन्न करती हैं । इन्द्रियों और वर्णादि गुणों में ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है, कारण और कार्य का नहीं । इन्द्रियों की उत्पत्ति उनके अपने कारणों से होती है तथा वर्णादि की उत्पत्ति उनके अपने कारगों से । इन्द्रियादि वर्णादि को प्रभावित कर सकते हैं एवं वर्गादि इन्द्रियादि को । जहां तक इनकी सत्ता का प्रश्न है, दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है । वर्णादि का ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है, अस्तित्व नहीं । अन्यथा ज्ञानभेद का कोई आधार ही नहीं रहेगा।
यदि वर्णादि धर्म वस्तुतः पदार्थ में हैं अर्थात् वस्तुगत हैं तो उनके प्रतिभास में अन्तर क्यों होता है ? सबको वर्णादि की सदा समान प्रतीति होनी चाहिए किन्तु ऐसा दिखाई नहीं देता। वर्णादि के प्रतिभास में देशगत, कालगत एवं व्यक्तिगत अन्तर
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