Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्वविचार १. कर्म पौद्गलिक हैं क्योंकि उनसे सुख-दुःखादि का अनुभव होता है । जिसके सम्बन्ध से सुख-दुःखादि का अनुभव होता है वह पौद्गलिक होता है, जैसे भोजनादि । जो पौद्गलिक नहीं होता उसके सम्बन्ध से सुख-दुःखादि भी नहीं होते, जैसे आकाश ।
२. जिसके सम्बन्ध से तीव्र वेदनादि का अनुभव होता है वह पौद्गलिक होता है, जैसे अग्नि । कर्म के सम्बन्ध से तीव्र वेदनादि की प्रतीति होती है, अतः कर्म पौद्गलिक हैं।
३ पोद्गलिक पदार्थ के संयोग से पौद्गलिक पदार्थ की ही वृद्धि हो सकती है, जैसे घट तैलादि के संयोग से वृद्धय न्मुख होता है । यही स्थिति हमारी हैं। हम बाह्य पदार्थों के संयोग से वृद्धि की प्राप्ति करते हैं। यह वृद्धि कामिक है और पौद्गलिक पदार्थों के संयोग से होती है, अतः कर्म पौद्गलिक हैं।
४. कर्म पौद्गलिक हैं क्योंकि उनका परिवर्तन आत्मा के परिवर्तन से भिन्न है। कर्मों का परिणामित्व (परिवर्तन) उनके कार्य शरीरादि के परिणामित्व से जाना जाता है। शरीरादि का परिणामित्व आत्मा के परिणामित्व से भिन्न है क्योंकि आत्मा का परिणामित्व अरूपी है जब कि शरीर का परिणामित्व रूपी है । अतः कर्म पौद्गलिक हैं।
संसारी आत्मा का कर्मों से संयोग इसलिए हो सकता है कि कर्म मूर्त हैं और संसारी आत्मा भी कर्मयुक्त होने से कथंचित् मूर्त है । आत्मा और कर्म का यह संयोग अनादि है, अतः यह प्रश्न ही नहीं उठता कि पहले पहल आत्मा और कर्म का संयोग कैसे हुआ? एक बार इस संयोग के सर्वथा समाप्त हो जाने पर पुनः संयोग नहीं होता क्योंकि उस समय आत्मा अपने शुद्ध अमूर्त रूप में पहुंच जाता है। यही मोक्ष है। यही संसार-निवृत्ति है। यही सिद्धावस्था है। यही ईश्वरावस्था है।
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