Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
१३८ द्रव्य का वर्गीकरण :
द्रव्य के कितने भेद हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है। जहाँ तक द्रव्य-सामान्य . का प्रश्न है, सब एक है। वहाँ किसी प्रकार की भेद-कल्पना . उत्पन्न ही नहीं होती। जो द्रव्य है वह सत् है और वही तत्त्व है। सत्तासामान्य की दृष्टि से जड़ और चेतन, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक हैं । यह दृष्टिकोण संग्रह-नय की दृष्टि से सत्य है । संग्रह-नय सर्वत्र अभेद देखता है। भोद की उपेक्षा करके अभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह-नय का कार्य है। अभेदग्राही संग्रह-नय भेद का निषेध. नहीं करता अपितु भेद को अपने क्षेत्र से बाहर समझता है । इस नय का अन्तिम विषय सत्तासामान्य है, जिसे हम परसामान्य या महासामान्य कह सकते हैं । प्रत्येक द्रव्य सत् है । सत्तासामान्य का ग्रहण एकता का अन्तिम सोपान है, जहाँ सारे भेद भेदरूप से सत् होते हुए भी अभेदरूप से प्रतिभासित होते हैं। सत्ता भेदों को नष्ट नहीं करती अपितु उनमें एकत्व और सद्भाव स्थापित करती है । भेद रहते हुए भी जहाँ अभेद का दर्शन होता है, अनेकता में भी जहाँ एकता दिखाई देती है। इस दृष्टि से द्रव्य अथवा तत्त्व एक है । जो लोग अद्वैत में विश्वास रखते हैं उनसे हमारी मान्यता में यह भेद है कि वे केवल सामान्य को यथार्थ मानते हैं और भेद अर्थात् विशेष का अपलाप करते हैं जबकि जैन दृष्टि से भेद का निषेध नहीं किया जा सकता। वहाँ प्रयोजन के अभाव में भेद की उपेक्षा अवश्य की जा सकती है। उपेक्षा का अर्थ यह नहीं कि भेद असत् है-मिथ्या है। अभेद की दृष्टि को प्रधानता देते समय हमारा भेद से कोई प्रयोजन नहीं होता है इसीलिए उसकी
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