Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
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समझता है कि सुख-दुःखादि मेरे भाव हैं। यह धारणा भी परिणामवाद की ओर जाती है । पुरुष अपने मूल स्वरूप को भूलकर सुख-दुःखादि को अपना समझने लगता है, इसका अर्थ यह हुआ कि उसके मूल रूप में एक प्रकार का परिवर्तन हो गया। बिना अपने असली रूप को छोड़े यह कभी नहीं हो सकता कि वह सुख-दुःखादि को, जो वास्तव में उसके नहीं है, अपना समझने लगे। ज्योंही वह अपने मूलरूप को भूलकर अन्य रूप में आ जाता है त्योंही उसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन अपरिणामी पुरुष में कदापि सम्भव नहीं। अतः पुरुष परिणामी है। दूसरी बात यह है कि सुखदुःखादि परिणाम चैतन्यपूर्वक हैं। जड़ प्रकृति को इन परिणामों का अनुभव नहीं हो सकता । ऐसी दशा में यही मानना चाहिए कि पुरुष परिणामी है। ___सांख्य पुरुष को कर्ता नहीं मानता । पुरुष साक्षी मात्र है, ऐसा उसका विश्वास है। परिणामवाद की सिद्धि के साथ ही कर्तृत्व भी सिद्ध हो जाता है। सुख-दु.खादि का अनुभव बिना क्रिया के नहीं हो सकता । अथवा कहना चाहिए कि सुखदुःखादि क्रियारूप ही हैं। ऐसी अवस्था में पुरुष को अकर्ता और निष्क्रिय कहना ठीक नहीं। आत्मा 'कर्ता है' यह लक्षण इसी बात की पुष्टि के लिए है।
'आत्मा साक्षात् भोक्ता है' यह विशेषण भी सांख्यों की मान्यता के खण्डन के लिए है। सांख्यलोग पुरुष में साक्षात् भोक्तृत्व नहीं मानते । वे कहते हैं कि बुद्धि का जो भोग है १. तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । ___ कैवल्यं माध्यस्थ्यं दृष्टत्वमकतुंभावश्च ॥
-सांख्यकारिका, १६.
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