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तत्वविचार
१६६ अस्तित्व मानकर भी उसे स्वदेह-परिमाण मानना जैन दर्शन की ही विशेषता है। जैन दर्शन के अतिरिक्त कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो आत्मा को शरीर-परिमाण मानता हो। जैनों का कथन है कि किसी भी आत्मा को शरीर से बाहर मानना अनुभव एवं प्रतीति से विपरीत है। हमारी प्रतीति हमें यही बताती है कि जितने परिमाण में हमारा शरीर है उतने ही परिमाण में हमारी आत्मा है। शरीर से बाहर आत्मा का अस्तिः। किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता। जहाँ पर जिस वस्तु के गुण उपलब्ध होते हैं वह वस्तु वही पर होती है। कुम्भ वहीं है जहाँ कुम्भ के गुण रूपादि उपलब्ध है। इसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व भी वहीं मानना चाहिए जहाँ आत्मा के गुण ज्ञान, स्मृति आदि उपलब्ध हों। ये सारे गुण यद्यपि भौतिक शरीर के नहीं हैं तथापि उपलब्ध वहीं होते हैं जहाँ शरीर होता है, अतः यह मानना ठीक नहीं कि आत्मा सर्वव्यापक है । ___कोई यह पूछ सकता है कि गन्ध दूर रहती है फिर भी हम कैसे सूंघ लेते हैं ? इसका उत्तर यही है कि गन्ध के परमाणु घ्राणेन्द्रिय तक पहुंचते हैं इसीलिए हमें गन्ध आती है। यदि घ्राणेन्द्रिय के पास पहुंचे विना ही गन्ध का अनुभव होने लगे तो सभी वस्तुओं की गन्ध आ जानी चाहिए। ऐसा नहीं होता, किन्तु जिस वस्तु के गन्धाणु हमारी घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचते हैं उसी वस्तु की गन्ध की प्रतीति होती है । आत्मा के सर्वगतत्व का खण्डन करने के लिए निम्नोक्त हेतु है___ आत्मा सर्वगत नहीं है क्योंकि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते। जिसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते वह सर्वगत नहीं होता, जैसे घट । आत्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते
१. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, का० ६.
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