Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
१७२
जैन धर्म-दर्शन
1
मतैक्य है ( स्वदेहपरिमाण की दृष्टि से जो मतभेद है उसका विचार कर चुके हैं ) | अद्वैत वेदान्त मानता है कि आध्यात्मिक तत्त्व एक ही है । वह सर्वव्यापक है और सर्वत्र समान रूप से रहता है । अविद्या के प्रभाव के कारण हम यह समझते हैं कि भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं और उनका भिन्न-भिन्न अस्तित्व है । जिस प्रकार एक ही आकाश घटाकाश, पटाकाश आदि रूपों में प्रतिभासित होता है उसी प्रकार अविद्या के कारण एक ही आत्मा अनेक आत्माओं के रूप में प्रतिभासित होती है । एक ही परमेश्वर कूटस्थ नित्य विज्ञान धातु अविद्या के कारण अनेक प्रकार का मालूम होता है ।'
इस मान्यता का खण्डन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि जहाँ तक आकाश का प्रश्न है, यह कहना उचित है कि वह एक है क्योंकि अनेक वस्तुओं को अपने अन्दर अवगाहना देते हुए भी वह एकरूप रहता है । उसके अन्दर कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता । अथवा आकाश भी सर्वथा एकरूप नहीं है क्योंकि वह भी घटाकाश, पटाकाश, मठाकाश आदि अनेक रूपों में परिणत होता रहता है। दीपक की तरह वह भी कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य । फिर भी मान लीजिए कि आकाश एकरूपं है । किन्तु जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, ऐसी कोई भी एकता मालूम नहीं होती जिसके कारण सारे भेद समाप्त हो जाते हों । यह ठीक है कि उनका स्वरूप एक सरीखा है । ऐसा होते हुए भी उनमें ऐकान्तिक अभेद नहीं है । माया को बीच में डालकर भेद को मिथ्या सिद्ध करना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि १. तेषां सर्वेषामात्मैकत्वसम्यग्दर्शनप्रतिपक्षभूतानां प्रतिबोधायेदं शरीरकमारब्धम् । एक एव परमेश्वरस्य कूटस्थ नित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते, नान्यो विज्ञानधातुरस्ति । - शारीरकभाप्य, १. ३. १६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org