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जैन धर्म-दर्शन
अतः आत्मा सर्वगत नहीं है । जो सर्वगत होता है उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, जैसे आकाश ।
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नैयायिक. इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि हमारा अदृष्ट सर्वत्र कार्य करता रहता है । उसके रहने के लिए आत्मा की आवश्यकता होती है। वह केवल आकाश में नहीं रहता क्योंकि प्रत्येक आत्मा का अदृष्ट भिन्न-भिन्न है । जब अदृष्ट सर्वव्यापक है तब आत्मा भी सर्वव्यापक ही होगी क्योंकि जहाँ आत्मा होती है वहीं अदृष्ट रहता है। जैन दार्शनिक इस चीज को नहीं मानते । वे कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव होता है जिसके अनुसार वह कार्य करती है । अग्नि का स्वभाव जलना है इसलिए वह जलती है । यदि प्रत्येक वस्तु के लिए अदृष्ट की कल्पना की जायगी तो वायु का तिर्यग्गमन, अग्नि का 'प्रज्वलन आदि जगत् के जितने भी कार्य हैं सबके लिए अदृष्ट की सत्ता माननी पड़ेगी। ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि प्रत्येक वस्तु का एक विशिष्ट स्वभाव होता है जिसके अनुसार वह कार्य करती है । वह स्वभाव उसका स्वरूप है, अदृष्ट-प्रदत्त गुण नहीं ।
दूसरी बात यह है कि यदि सभी वस्तुओं के स्वभाव का निर्माण अदृष्ट द्वारा माना जाय तो ईश्वर के लिए जगत् में कोई स्थान नहीं रहेगा ।
एक प्रश्न यह हो सकता है कि यदि आत्मा विभु नहीं है तो शरीर-निर्माण के लिए परमाणुओं को कैसे खींचेगी ? इसका उत्तर यह है कि शरीर निर्माण के लिए विभत्व की आवश्यकता नहीं है । यदि आत्मा को विभु माना जाय तो उसका शरीर जगत्परिमाण हो जायगा क्योंकि जगत्व्यापी होने से वह १. स्याद्वादमंजरी, पृ० ४६.
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