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तत्त्वविचार
१६५ उसी प्रकार ज्ञान आत्मा का करण होता हुआ भी आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है । वह आत्मा का स्वभाव है इसलिए आत्मा से अभिन्न है।
यहाँ पर एक शंका होती है कि यदि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं तो उन दोनों में कर्तृ-करणभाव कैसे बन सकता है ? जिस प्रकार सर्प अपने ही शरीर से अपने को लपेटता है' उसी प्रकार आत्मा अपने से ही अपने आपको जानता है। वही आत्मा जाननेवाला है-कर्ता है और उसी आत्मा से जानता है-करण है । कर्ता और करण का यह सम्बन्ध पर्यायभेद से है। आत्मा की ही पर्याय करण होती हैं। उन पर्यायों को छोड़कर दूसरा कोई करण नहीं होता। अतः आत्मा चैतन्यस्वरूप है।
आत्मा 'परिणामी है' यह विशेषण उन लोगों के मत के खण्डन के लिए है जो आत्मा को चैतन्यस्वरूप मानते हुए भी एकान्त रूप से नित्य एवं शाश्वत मानते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा अपरिणामी है-अपरिवर्तनशील है। उदाहरण के लिए सांख्य दर्शन को लीजिए। वह पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है । जो कुछ भी परिवर्तन होता है वह प्रकृति में होता है। पुरुष न कभी बद्ध होता है और न कभी मुक्त । बन्धन और मुक्तिरूप जितने भी परिणाम हैं वे प्रकृत्याश्रित हैं, पुरुषाश्रित नहीं। पुरुष नित्य है अतः जन्म, मरण आदि जितने भी परि१. सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयति ।
-स्याद्वादमंजरी, पृ० ४३. २. तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाऽऽश्रया प्रकृतिः ॥
-सांख्यकारिका, ६२.
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