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तत्त्वविचार
१६३ है। ऐसी स्थिति में इसका क्या कारण है कि चैत्र का ज्ञान चैत्र की ही आत्मा में है और मैत्र का ज्ञान मैत्र की ही आत्मा में ? दोनों ज्ञान दोनों में समान रूप से रहने चाहिए । वास्तव में 'उसका ज्ञान', 'इसका ज्ञान' या 'मेरा ज्ञान' जैसी कोई वस्तु नहीं है । सभी ज्ञान सवसे समान रूप से भिन्न हैं क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है । वह बाद में आत्मा से जुड़ता है। ___ इस कठिनाई को दूर करने के लिए यह हेतु दिया जाता है कि यद्यपि ज्ञान और आत्मा बिल्कुल भिन्न हैं तथापि ज्ञान आत्मा से समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है । जो ज्ञान जिस आत्मा के साथ सम्बद्ध होता है वह ज्ञान उसी आत्मा का कहा जाता है, अन्य का नहीं। इस प्रकार समवाय सम्बन्ध हमारी सारी कठिनाई दूर कर देता है। चैत्र का ज्ञान चैत्र की आत्मा से सम्बद्ध है, न कि मैत्र की आत्मा से । इसी तरह मैत्र का ज्ञान मैत्र की आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है, न कि चैत्र की आत्मा के साथ । जो ज्ञान जिस आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से जुड़ा हुआ होता है वह ज्ञान उसी आत्मा का ज्ञान कहा जाता है।
नैयायिकों और वैशेषिकों का यह हेतु ठीक नहीं। समवाय एक है, नित्य है और व्यापक है । अमुक ज्ञान का सम्बन्ध चैत्र से ही होना चाहिए, मैत्र से नहीं, इसका कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं है। जब समवाय एक, नित्य और व्यापक है तब ऐसा क्यों कि अमुक ज्ञान का सम्बन्ध अमुक आत्मा के साथ ही हो
और अन्य आत्माओं के साथ नहीं। दूसरी बात यह है कि न्यायवैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा भी सर्वव्यापक है इसलिए एक आत्मा का ज्ञान सब आत्माओं में रहना चाहिए । इस तरह चैत्र का ज्ञान मैत्र में भी रहेगा।
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