Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
१६१ स्वभावोपयोग है । केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप आत्मा का शुद्ध और स्वभावोपयोग ही मुक्तात्मा की पहचान है । संसारी जीवों के समनस्क और अमनस्क, त्रस और स्थावर, पर्याप्त और अपर्याप्त आदि कई भेद हैं । इन सब भेदों का विशेष विचार न करके संसारी जीव के स्वरूप का जरा विस्तृत विवेचन करेंगे | साथ-ही-साथ अन्य दर्शनों से इस विषय में क्या मतभेद है, इसका भी उल्लेख करने का प्रयत्न करेंगे ।
संसारी आत्मा :
वादिदेवसूरि ने संसारी आत्मा का जो स्वरूप बताया है उसमें जैन दर्शन-सम्मत आत्मा का पूर्ण रूप आ जाता है । यहाँ उसी स्वरूप को आधार बनाकर विवेचन किया जायगा । वह स्वरूप यह है
आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्ता है, साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौद्गलिक कर्मों से युक्त है ।"
'आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है' इस कथन का तात्पर्य यह है कि चार्वाकादि जो लोग आत्मा का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते उन्हें उसकी स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास करना चाहिए। इसके लिए हम बहुत कुछ लिख चुके हैं अतः यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं ।
'वह चैतन्यस्वरूप है' यह लक्षण वैशेषिक और नैयायिकादि उन दार्शनिकों को उत्तर देने के लिए है जो चैतन्य को १. प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा ।
चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्त्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्न पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् ।
- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ७.५५-५६.
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