________________
जैन धर्म-दर्शन
इस प्रकार दर्शनोपयोग के चार भेद हुए
१. केवलदर्शन ( स्वभावदर्शन ), २. चक्षुर्दर्शन, ३. अचक्षुदर्शन, ४ अवधिदर्शन |
१६०
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेदों में यह अन्तर है कि दर्शनोपयोग कभी मिथ्या नहीं होता । सत्तामात्र का उपयोग मिथ्या नहीं हो सकता । जब उपयोग सविकल्पक रूप धारण करता है --विशेषग्राही होता है तब मिथ्या होने का अवसर आता है । सामान्य सत्तामात्र का ग्रहण मिथ्यात्व से परे है क्योंकि वहाँ केवल सत्ता का प्रतिभास है । सत्ता के प्रतिभास में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का भेद नहीं होता । वह तो एकरूप होता है और वह रूप यथार्थ होता है । दूसरा अन्तर यह है कि मन:पर्ययदर्शन नहीं होता क्योंकि अवधिदर्शन के विषय के अनन्तवें भाग का ज्ञान ही मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्यय उपयोग अवधिज्ञान का ही विशेष विकास है । ऐसी दशा में मन:पर्यय नामक भिन्न दर्शन की कोई आवश्यकता नहीं । सूक्ष्म विवेचन किया जाय तो मन:पर्ययज्ञान भी अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एक ही उपयोग की दो भूमिकाएं हैं। तीसरा अन्तर यह है कि श्रुतज्ञान की तरह श्रुतदर्शन नहीं होता क्योंकि श्रुतोपयोग हमेशा सविकल्पक होता है। चक्षुदर्शन और अचक्षुर्दर्शन मतिज्ञान की ही भूमिकाएँ हैं । इन दोनों का नाम मतिदर्शन इसलिए नहीं रखा कि दर्शन में चक्षुरिन्द्रिय को अधिक महत्त्व दिया गया है । चक्षु के महत्त्व के कारण एक भेद चक्षु के नाम से रखा गया और दूसरा चक्षु से इतर इन्द्रियों और मन के नाम से ।
सामान्यरूप से आत्मा का यही स्वरूप है । ऐसे जीवों के दो भेद किये गये हैं- संसारी और मुक्त ।' मुक्त जीव का लक्षण १. संसारिणी मुक्ताश्चं । - वही, २.१०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org