Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सत्वविचार
१४६ कहा जा सके कि आत्मा के अभाव में इस पदार्थ का सद्भाव नहीं हो सकता । जब इस पदार्थ का सद्भाव है तो आत्मा का सद्भाव अवश्य होना चाहिए। अतः अर्थापत्ति भी आत्मा को सिद्ध करने में असमर्थ है।
इस प्रकार जब पांचों सद्भावसाधक प्रमाणों से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि नहीं हो सकती तब स्वाभाविकतौर से अभावप्रमाण की प्रवृत्ति होती है । अभावप्रमाण असद्भाव साधक है । अतः यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा असत् है । यह अभाव, अमुक स्थान पर आत्मा नहीं है, ऐसा नहीं कहता, अपितु सर्वत्र आत्मा नहीं है, इस प्रकार रो आत्मा के आत्यन्तिक अभाव की सूचना देता है । किसी वस्तु का एक जगह प्रत्यक्ष होता है और अन्यत्र प्रत्यक्ष नहीं होता तब यह कहा जा सकता है कि अभाव ने अमुक क्षेत्र में अमुक वस्तु के असद्भाव की स्थापना या सिद्धि की। आत्मा का कहीं प्रत्यक्ष नही होता अतः आत्मा के अभाव का जो ज्ञान है वह आत्यन्तिक अभाव का सूचक है । इस प्रकार पूर्वपक्ष के रूप में आत्मा के अस्तित्व के विरोध में उपर्युक्त हेतु उपस्थित किये गये । इन हेतुओं का मुख्य आधार प्रत्यक्ष हैइन्द्रियप्रत्यक्ष है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के अभाव में आत्मा का सद्भाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। 'इन हेतुओं का इस प्रकार खण्डन हो सकता है
प्रथम हेतु में प्रत्यक्ष का अभाव बताया गया, वह ठीक नहीं। केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही किसी तत्त्व की सिद्धि में प्रमाण मानना युक्तियुक्त नहीं। ऐसा मानने पर सुख-दुःखादि का भी अभाव सिद्ध होगा क्योंकि वे इन्द्रियप्रत्यक्ष के विषय न होकर मानसिक अनुभव के विषय हैं । आत्मा प्रत्यक्ष से सिद्ध है क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं सब आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है
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