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तत्त्वविचार
१५१ बिखरी हुई अवस्था में उपलब्ध न होकर व्यवस्थित ढंग से एकदूसरे से सम्बद्ध और सापेक्ष रूप में मिलती हैं। किसी एक सामान्य तत्त्व के अभाव में उनका पारस्परिक सम्बन्ध नहीं हो सकता। इनकी एकरूपता और अन्वय बिना किसी सामान्य आधार के सम्भव नहीं। शुद्ध भौतिक मस्तिष्क इस प्रकार की एकरूपता, व्यवस्था और अन्वय के प्रति कारण नहीं हो सकता।
संशय और संशयी का प्रश्न भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व की अनिवार्यता है जो उसका आधार हो। बिना अधिष्ठान के किसी ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। संशय का अधिष्ठान कोई-न-कोई अवश्य होना चाहिए। सांख्यकारिका में पुरुष की सिद्धि के लिए एक हेतु 'अधिष्ठानात्' भी दिया गया है। इसी प्रकार से भोक्तृत्वादि हेतु भी उपस्थित किये गये हैं। ये सारे हेतु यहाँ प्रयुक्त हो सकते हैं। विशेषावश्यकभाष्य में भ० महावीर गौतम से कहते हैं कि हे गौतम ! यदि संशयी ही नहीं है तो “मैं हूं या नहीं हूं" यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है ? यदि तुम स्वयं ही अपने खुद के विषय में सन्देह कर सकते हो तो फिर किसमें संशय न होगा?
आत्मा की सिद्धि के लिए गुण और गुणी का हेतु भी दिया जाता है। घट के रूपादि गुणों को देखकर घट का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा के ज्ञानादि गुणों का १. संघातपरार्थत्वात , त्रिगुणादिविपर्य यादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात्, कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च ॥
-सांख्यकारिका, १७. २. विशेषावश्यकभाष्य, १५५७.
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