Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन अनुभव करके आत्मा को सिद्ध किया जा सकता है । गुण और गुणी का सम्बन्ध अविच्छेद्य है। जहाँ गुण होते हैं वहाँ गुणी अवश्य होता है और जहाँ गुणी रहता है वहाँ गुण अवश्य होते हैं । न तो गुण गुणी के अभाव में रह सकते हैं और न गुणी गुण के बिना रह सकता है। जब गुण का अनुभव होता है तब गुणी का अस्तित्व भी होना ही चाहिए।' ___वादी इस हेतु को मान लेता है, किन्तु वह कहता है कि ज्ञानादि गुणों का आधार शरीर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । ज्ञानादि जितने भी गुण पाये जाते हैं, सब शरीराश्रित हैं। ऐसी दशा में शरीर से भिन्न एक स्वतन्त्र आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं । ज्ञानादि शरीर की ही क्रियाएँ हैं अतः उनका आधार शरीर से भिन्न कोई द्रव्य नहीं है। वादी का हेतु यों है-ज्ञानादि शरीर के गुण हैं क्योंकि वे केवल शरीर में ही पाये जाते हैं, जो शरीर में ही पाये जाते हैं वे शरीर के गुण होते हैं, जैसे मोटाई और दुबलापन आदि।
वादी का यह हेतु व्यभिचारी है। यह कैसे ? इसका उत्तर यों है-ज्ञानादि गुण भौतिक शरीर के गुण नहीं हो सकते क्योंकि हे अरूपी हैं, जब कि शरीर रूपी है, जैसे घट । रूपी द्रव्य के गुण अरूपी नहीं हो सकते, जैसे घट के गुण अरूपी नहीं हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-ग्राह्य हैं। ज्ञानादि गुण अरूपी हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं हैं। इसलिए ज्ञानादि गुण शरीर के गुण नहीं हो सकते क्योंकि शरीर रूपी है और उसके गुण भी रूपी हैं और चक्षुरादि इन्द्रियों से उन गुणों का ग्रहण होता है। इसलिए ज्ञानादि गुणों का अन्य आश्रय होना चाहिए। यह आश्रय आत्मा है जो अरूपी है। १. विशेषावश्यकभाप्य, १५५८.
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