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जैन धर्म-दर्शन
भूतों में पृथक-पृथक चैतन्य नहीं है । किण्वादि द्रव्यों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होनेवाली मादकता सर्वथा नवीन हो, ऐसी बात नहीं है । मादकता का कुछ-न-कुछ अंश प्रत्येक द्रव्य में अवश्य रहता है । अन्यथा उनके अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य से वही मादकता क्यों नहीं उत्पन्न हो जाती ? शक्तिरूप से रहनेवाली मादकता ही अभिव्यक्तरूप से प्रकट होती है । जो शक्तिरूप से सत् न हो वह अभिव्यक्त रूप से भी असत् ही रहता है । जो वस्तु सर्वथा असत् है वह कभी भी सत् नहीं हो सकती - जैसे खपुष्प । जो वस्तु सत् होती है वह कभी भी सर्वथा असत् नहीं हो सकती - जैसे चतुर्भूत । यदि चैतन्य सर्वथा असत् है तो वह कभी भी सत् नहीं हो सकता और यदि सत् है तो सर्वथा असत् नहीं हो सकता । चतुर्भूर्त में चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती, अतः उसका आश्रय आत्मा है ।
आत्मा की पृथक् सिद्धि में एक हेतु यह भी है कि आत्मा या जीव शब्द सार्थक है क्योंकि वह व्युत्पत्तिमूलक है और शुद्धपद है। जो पद व्युत्पत्तियुक्त एवं शुद्ध होता है उसका कोई न कोई विषय या वाच्य अवश्य होता है, जैसे घट शब्द का वाच्य एक विशिष्ट आकारवाला पदार्थ है । जो पद सार्थक नहीं होता उसकी व्युत्पत्ति नहीं होती और वह शुद्धपद नहीं होता । 'डित्थ' पद शुद्ध होता हुआ भी व्युत्पत्तिमूलक नहीं है, अतः वह निरर्थक है । 'आकाशकुसुम' पद व्युत्पत्तिमूलक होता हुआ भी निरर्थक है क्योंकि वह शुद्धपद नहीं है । 'जीव' पद के लिए यह बात नहीं है, अतः उसका वाच्य कोई न कोई अर्थ अवश्य
१. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
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- भगवदगीता, २. १६.
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