Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार में केवलज्ञान की संज्ञा दी गई है। यह ज्ञान अकेला ही होता है अत: केवलज्ञान कहलाता है । केवल का अर्थ है असहायअकेला । यह ज्ञान कभी मिथ्या नहीं होता।
विभावज्ञान के पुनः दो भेद होते हैं-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । सम्यग्ज्ञान चार प्रकार का होता है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, और मनःपर्ययज्ञान । ___मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन से पैदा होनेवाला जीव और अजीवविषयक ज्ञान मतिज्ञान है। __श्रुतज्ञान-किसी आप्त के वचन सुनने से अथवा आप्तवाक्यों को पढ़ने से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान आप्तवाक्य के संकेतस्मरण से पैदा होता है। इसे आगमज्ञान या शब्दज्ञान भी कह सकते हैं।
अवधिज्ञान-रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान अवधिज्ञान है । इस ज्ञान से रूपी द्रव्य ही जाने जाते हैं, अरूपी द्रव्य नहीं जाने जा सकते। - मनःपर्ययज्ञान-मन का विविध पर्यायों का प्रत्यक्ष ज्ञान मनःपर्य यज्ञान है।
मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का होता है-मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान ।'
मत्यज्ञान-मतिविषयक मिथ्याज्ञान मत्यज्ञान है। · श्रुताज्ञान-श्रुतविषयक मिथ्याज्ञान का नाम श्रुताज्ञान है।
विभंगज्ञान-अवधिविषयक मिथ्याज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया है।
मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान का आधार विषय न होकर ज्ञाता है । जो ज्ञाता मिथ्या-श्रद्धावाला होता है उसका सारा १. मतिश्रतावषयो विपर्ययश्च । -तस्वार्थसूत्र, १. ३२.
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