Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
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रूपी और अरूपी:
जैन दर्शन में जीव, पुद्गल, धर्म (गति का माध्यम), अधर्म, (स्थिति का माध्यम), आकाश और काल-ये छः तत्त्व अर्थात् षड्द्रव्य माने गये हैं। सारा विश्व इन्हीं छः तत्त्वों से निर्मित है। इनमें से पुद्गल द्रव्य रूपी कहा जाता है अर्थात् वह इन्द्रियों से देखा-जाना जा सकता है। शेष पांचों द्रव्य अरूपी हैं अर्थात् उन्हें इन्द्रियों से देखा-जाना नहीं जा सकता। जीव अर्थात् आत्मा भी अरूपी है और धर्म आदि भी अरूपी हैं । तब फिर जीव और धर्म आदि में क्या अन्तर है ? जीव चेतन है जबकि धर्म आदि जड़ हैं। पुद्गल अर्थात् भूत भी जड़ है तथा धर्म आदि भी जड़ हैं । तो फिर पुद्गल से धर्म आदि में क्या विशेषता है ? पुद्गल मूर्त अर्थात् रूपी जड़ है जबकि धर्म आदि अमूर्त अर्थात् अरूपी जड़ हैं। तात्पर्य यह है कि जीव चेतन अरूपी है, पुद्गल जड़ रूपी है तथा धर्मादि जड़ अरूपी हैं । कोई ऐसा तत्त्व नहीं है जो चेतन रूपी हो क्योंकि रूप चेतन का नहीं, जड़ का ही गुण है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि सब जड़ तत्त्व रूपी ही हों क्योंकि धर्मादि तत्त्व जड़ होते हुए भी अरूपी हैं। यहां रूपी और अरूपी का अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि जो साधारणतया ज्ञानेन्द्रियों से अनुभ त हो सके वह रूपी है तथा जिसका अनुभव ज्ञानेन्द्रियों से न हो सके वह अरूपी है। अरूपी पदार्थों के साक्षात् ज्ञान के लिए विशेष योग्यता अपेक्षित है। अरूपी पदार्थ इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी इन्द्रियां उनका ग्रहण नहीं कर सकतीं। उनका साक्षात् ज्ञान हमारी इन्द्रियों की शक्ति के बाहर होता है। किसी असाधारण शक्ति या सामर्थ्य की उपस्थिति में ही अरूपी पदार्थ साक्षात् अनुभूति के विषय बन सकते हैं।
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