Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्वविचार यहाँ कुछ पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण कर देना ठीक होगा। अजीवद्रव्य रूपी और अरूपी दो भेदों में विभक्त किया गया है । रूपी का सामान्य अर्थ होता है रूपयुक्त । इस अर्थ में चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता दिखाई देती है। जैनदर्शन में रूपी का अर्थ केवल चक्षुरिन्द्रिय तक ही सीमित नहीं है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण इन चारों से जो युक्त है वह रूपी है।' स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों एक साथ रहते हैं। जहाँ स्पर्श है वहाँ रसादि भी हैं, जहाँ वर्ण है वहाँ स्पर्शादि भी हैं । जहाँ इन चारों में से एक भी हो वहाँ शेष तीन अवश्य हैं । अतः जहाँ रूपी शब्द का प्रयोग हो वहाँ स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण चारों की स्थिति समझनी चाहिए । पुद्गल के किसी भी अंश में ये चारों गुण रहते हैं, अतः वह रूपी है। जो रूपी न हो उसे अरूपी समझना चाहिए। पुद्गल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण नहीं हैं, अतः वे अरूपी हैं।
अस्तिकाय का अर्थ होता है प्रदेश-बहुत्व । 'अस्ति' और 'काय' इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है । अस्ति का अर्थ है विद्यमान होना और काय का अर्थ है अनेक प्रदेशों का समूह । जहाँ अनेक प्रदेशों का समूह होता है वह अस्तिकाय कहा जाता है । इसी चीज को और स्पष्ट करने के लिए हमें प्रदेश का अर्थ भी समझना चाहिए। पुद्गल का एक अणु १. रूपिणः पुद्गला: -तत्त्वार्थसूत्र, ५. ४.
स्पर्श रसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला : -वही, ५. २३. २. संति जदो तेणेदे, अस्थिति भणंति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अस्थिकाया य ।।
-द्रव्यसंग्रह, २४.
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