Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
१३६ उपेक्षा की जाती है। उपेक्षा और अपलाप में जितना अन्तर है, अद्वैतवाद और जैन दर्शन की मान्यता में उतना ही अन्तर है। इस प्रकार संग्रह-नय अर्थात् संग्रहदृष्टि की प्रधानता स्वीकार की जाय तो द्रव्य एक ही सिद्ध होगा और वह होगा सत्तासामान्य के रूप में।
यदि हम द्वैतदृष्टि से देखें तो द्रव्य को दो रूपों में देख सकते हैं । ये दो रूप हैं जीव और अजीव ।' चैतन्य धर्मवाला जीव है और उससे विपरीत अजीव है। इस प्रकार सारा लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है । चैतन्य लक्षणवाले जितने भी द्रव्यविशेष हैं वे सब जीव-विभाग के अन्तर्गत आ जाते हैं। जिनमें चैतन्य नहीं है इस प्रकार के जितने भी द्रव्यविशेष हैं उन सब का समावेश अजीवविभाग के अन्तर्गत हो जाता है । __ जीव और अजीज के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छः भेद भी होते हैं ।२ जीव द्रव्य अरूपी है। अजीव द्रव्य के दो भेद किये गये हैं-रूपी और अरूपी। रूपी द्रव्य को पुद्गल कहा गया। अरूपी के पुनः चार भेद हुए-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अद्धासमय-काल । इस प्रकार द्रव्य के कुल ६ भेद हो जाते हैंजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
और अद्धासमय । इन छः द्रव्यों में से प्रथम पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं और छठा अस्तिकाय नहीं है। भेद-प्रभेद का स्पष्ट : विवरण इस प्रकार है :
१. विसे सिए जीवदब्वे अजीबदवे य--अनुयोगद्वार, सू. १२३. २. भगवतीसूत्र, १५. २-४. ३. वही, २. १०. ११७; स्थामांग, ५. ४४१.
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