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जैन धर्म-दर्शन जितना स्थान (आकाश) घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं। यह एक प्रदेश का परिमाण है। इस प्रकार के अनेक प्रदेश जिस द्रव्य में पाये जाते हैं वह द्रव्य अस्तिकाय कहा जाता है । प्रदेश का उक्त परिमाण एक प्रकार का नाप है । इस नाप से पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्य भी नापे जा सकते हैं । यद्यपि जीवादि द्रव्य अरूपी हैं किन्तु उनकी स्थिति आकाश में है और आकाश स्वप्रतिष्ठित है। अतः उनका परिमाण समझने के लिए नापा जा सकता है। यह ठीक है कि पुद्गल द्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्यों का इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धि से उनका परिमाण नापा एवं समझा जा सकता है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के अनेक प्रदेश होते हैं। अतः ये पाँचों द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते हैं। इन प्रदेशों को अवयव भी कह सकते हैं। अनेक अवयववाले द्रव्य अस्तिकाय हैं। अद्धासमय अर्थात् काल के स्वतन्त्र निरन्वय प्रदेश होते हैं। वह अनेक प्रदेश वाला एक अखण्ड द्रव्य नहीं है, अपितु उसके स्वतन्त्र अनेक प्रदेश हैं। प्रत्येक प्रदेश स्वतन्त्ररूप से अपना कार्य करता है। उनमें एक अवयवी की कल्पना नहीं की गई, अपितु स्वतन्त्र रूप से सारे कालप्रदेशों को भिन्न-भिन्न द्रव्य माना गया । इस प्रकार ये काल द्रव्य एक द्रव्य न होकर अनेक द्रव्य हैं। लक्षण की समानता से सबको 'काल' ऐसा एक नाम दे दिया गया। धर्म आदि द्रव्यों के समान काल एक द्रव्य नहीं है। इसलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया । अस्तिकाय और अनस्तिकाय का यही स्वरूप है।
१. जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वद्धं । त ख पदेसं जाणे, सव्वाणुट्टाणदाणरिहं ।।
-वहीं, २७,
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