Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व :
जीव का स्वरूप जानने के पहले हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जीव की स्वतन्त्र सत्ता है या नहीं । चार्वाक आदि दार्शनिक जीव की स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास नहीं करते । वे भौतिक तत्त्वों के विशिष्ट संयोग से आत्मा की उत्पत्ति मानते हैं । जीव या आत्मा नाम का कोई पृथक् स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । जिस प्रकार नाना द्रव्यों के संयोग से मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार भूतों के विशिष्ट मेल से चैतन्य पैदा हो जाता है। भारत में चार्वाक और पश्चिम में थेलिस, एनाक्सिमांडर, एनाक्सिमीनेस आदि एकजड़वादी तथा डेमोक्रेटस आदि अनेकजड़वादी इसी मान्यता के पक्षपाती हैं ।
जैन धर्म-दर्शन
विशेषावश्यकभाष्य में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए कई प्रमाण दिये गये हैं । सर्वप्रथम हम पूर्वपक्ष का विचार करेंगे । आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत न करनेवाला पहला हेतु यह देता है कि आत्मा नहीं है क्योंकि उसका इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं होता । घट सत् है क्योंकि वह इन्द्रियप्रत्यक्ष से ग्राह्य है । आत्मा सत् नही है क्योंकि वह घट के समान इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है । जो इन्द्रियग्राह्य नहीं होता वह असत् होता है जैसे आकाशकुसुम । आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं है इसलिए आकाश- - कुसुम के समान असत् है । कोई यह कह सकता है कि अणु यद्यपि इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है फिर भी वह सत् है, ऐसा क्यों ?
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१. Monistic Materialists.
2. Pluralistic Materialists.
३. जीवे तुह संदेहो पच्चक्खं जं न विप्पइ घडो व्व । अच्चतापच्चक्खं च णत्थि लोए
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खपुष्कं व ॥
- विशेषावश्यक भाग्य, १५४९.
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