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जैन धर्म-दर्शन जो अरूपी अथवा अमूर्त तत्त्वों का साक्षात् ज्ञान करता है वह उन तत्त्वों को किस रूप से जानता है ? क्या वह उनका कोई निश्चित आकार-प्रकार अनुभव करता है ? यदि यह कहा जाय कि वह उन्हें किसी निश्चित आकार-प्रकार के रूप में जानता है तो वे आकारवाले होने के कारण मूर्त अर्थात् रूपी हो जाएंगे क्योंकि आकार रूप के बिना संभव नहीं। ऐसी स्थिति में उनका अरूपी होना अयथार्थ हो जायगा। यदि यह माना जाय कि अरूपी तत्त्वों का ज्ञाता किसी निश्चित आकार-प्रकार के बिना ही उन पदार्थों को जानता है तो प्रश्न उठता है कि उसके ज्ञान में जो पदार्थ प्रतिभासित हो रहे हैं उनका कोई निश्चित स्थान है या नहीं? यदि उनका अस्तित्व किसी निश्चित स्थान में है, चाहे फिर वह स्थान सारा लोक ही क्यों न हो, तो वह क्या वस्तु है जो उस स्थान में है और अन्यत्र नहीं ? बिना किसी निश्चित आकार-प्रकार को माने उनकी स्थिति किसी स्थान-विशेष में सिद्ध नहीं हो सकती । जो किसी स्थान में रहता है उसका कोई-न-कोई आकार-प्रकार होना ही चाहिए अन्यथा वह क्या है जो उस स्थान को व्याप्त करता है ? किसी निश्चित स्थान को व्याप्त करने के लिए कोई निश्चित आकार अनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि उन पदार्थों का कोई निश्चित स्थान नहीं है तो भी ठीक नहीं क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की सत्ता किसी-न-किसी स्थानविशेष से ही सम्बद्ध होती है। जैन दर्शन की भी यही मान्यता है कि जीव, धर्म, अधर्म आदि समस्त द्रव्य आकाश में स्थित हैं एवं आकाश में रहकर ही अपना कार्य करते हैं। धर्मादि जड़ द्रव्यों की तो बात ही क्या, जीव भी निश्चित आकार-प्रकार एवं निश्चित स्थान में रहता है। संसारी आत्माएँ तो शरीर-मम्बद्ध होने के कारण निश्चित आकार-प्रकारवाली अर्थात् स्वदेह-परिमाण होती ही हैं, मुक्त
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