Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन है । तत्त्व की दृष्टि से जो स्थान अभेद का है ठीक वही स्थान भेद का है । भेद और अभेद दोनों इस ढंग से मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की उपलब्धि नहीं हो सकती। वस्तु में दोनों का अविच्छेद्य समन्वय है । जहाँ भेद है वहाँ अभेद है
और जहाँ अभेद है वहाँ भोद है। भेद और अभेद किसी सम्बन्धविशेष से जुड़े हों, ऐसी बात नहीं है । वे तो स्वभाव से ही एक-दूसरे से मिले हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य-विशेषात्मक है-भेदाभेदात्मक है-नित्यानित्यात्मक है । जो सत् है वह भेदाभेदात्मक है । प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है । वस्तु या तत्त्व को केवल भेदात्मक कहना ठीक नहीं क्योंकि कोई भी भेद अभेद के बिना उपलब्ध नहीं होता । अभेद को मिथ्या या कल्पना मात्र कहना काफी नहीं जब तक कि वह किसी प्रमाण से मिथ्या सिद्ध न हो । प्रमाण का आधार अनुभव है और अनुभव अभेद को मिथ्या सिद्ध नहीं करता। इसी प्रकार एकान्त अभेद को मानना भी ठीक नहीं क्योंकि जो दोष एकान्त भेद में है वही दोष एकान्त अभेद में भी है। भेद और अभेद को दो स्वतन्त्र पदार्थ मानना भी ठीक नहीं क्योंकि वे. भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होते और उनको जोड़नेवाला कोई अन्य पदार्थ भी उपलब्ध नहीं होता। उनको जोड़नेवाला पदार्थ होता है, ऐसा मान लिया जाय, फिर भी दोष से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि उसको जोड़ने के लिए एक अन्य पदार्थ की आवश्यकता होगी और इस तरह अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होगा । ऐसी दशा में वस्तु स्वयं ही भेदाभेदात्मक है, ऐसा मानना ही ठीक होगा। तत्त्व कथंचित् सदृश है, कथंचित् विसदृश है, कथंचित् वाच्य है, कथंचित् अवाच्य है, कथंचित् सत् है, कथंचित् असत्
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