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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य एक नया उदाहरण रखा । उन्होंने यह सिद्ध किया कि ज्ञानसामग्री पर किसी सम्प्रदायविशेष या व्यक्ति-विशेष का अधिकार नहीं है। वह तो बहता हुआ प्रवाह है जिसमें कोई भी स्नान कर सकता है। साथ-ही-साथ उन्होंने यह भी सूचित किया कि जैन आचार्यों को न्यायशास्त्र की ओर भी कदम बढ़ाना चाहिये।
शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय आदि ग्रन्थों में हरिभद्र ने प्रमाण-शास्त्र पर बहुत-कुछ लिखा। इनके अतिरिक्त उनके षोडशक, अष्टक आदि ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । लोकतत्त्वनिर्णय में समन्वयदृष्टि पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। उनकी उदार दृष्टि का परिचय देने के लिए यह ग्रन्थ काफी है। दार्शनिक विषयों के अतिरिक्त उन्होंने योग पर भी लिखा
और इस प्रकार चिन्तन के क्षेत्र में जैन परम्परा को एक नई दिशा प्रदान की। योग-शास्त्र पर वैदिक और बौद्ध साहित्य में जो कुछ लिखा गया उसका जैन दृष्टि से समन्वय हरिभद्र की विशेष देन है। हरिभद्र के पूर्व किसी भी आचार्य ने इस प्रकार का प्रयत्न नहीं किया था । योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, षोडशक आदि ग्रन्थों में यही प्रयत्न किया गया है । धर्मसंग्रहणी उनका प्राकृत का ग्रन्थ है। इसमें जैन दर्शन का अच्छा प्रतिपादन है। आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र पर उनकी टीकाएं महत्त्वपूर्ण हैं ही। विद्यानन्द : ___ आचार्य विद्यानन्द जैनदर्शन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी तार्किक कृतियाँ अद्वितीय हैं। अनेकान्तवाद को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अष्टसहस्री की जो
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