Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
१०२
जैन धर्म-दर्शन
होने वाला यज्ञयागादि कर्म भी 'ब्रह्मन्' कहलाता है । उन मन्त्रों एवं सूत्रों का पाठ करने वाला एवं यज्ञयागादि कर्म कराने वाला पुरोहित 'ब्राह्मण' कहलाता है।
इस परम्परा के लिए 'शर्मन्' शब्द का प्रयोग भी होता है । यह '' धातु से बनता है, जिसका अर्थ होता है-हिंसा करना । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि 'शर्मन्' का अर्थ हिंसा करने वाला तो ठीक है, किन्तु किसकी हिंसा ? इस प्रश्न का उत्तर- ' शृणाति अशुभम्' अर्थात् जो अशुभ की हिंसा करे वह 'शर्मन्' इस व्युत्पत्ति से मिलता है । जहाँ तक अशुभ की हिंसा का प्रश्न है वहाँ तक तो ठीक है, किन्तु अशुभ क्या है, इस प्रश्न का जहाँ तक सम्बन्ध है, वैदिक परम्परा में मनुष्य के बाह्य स्वार्थ में बाधक प्रत्येक चीज अशुभ हो जाती है। याज्ञिक हिंसा का समर्थन इसी आधार पर हुआ है । " मा हिंस्यात् सर्वभूतानि” कह कर "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" का नारा लगाने का आधार मनुष्य का भौतिक स्वार्थ ही है । यज्ञ का अर्थ उत्सर्ग या त्याग है, यह ठीक है, किन्तु किसका उत्सर्ग ? यहाँ पर फिर वैदिक परम्परा वही आदर्श सामने रखती है। त्याग और उत्सर्ग के नाम पर दूसरे प्राणियों को सामने रख देती है और भोग और आनन्द के नाम पर मनुष्य स्वयं सामने आ धमकता है । अपने सुख के लिए दूसरे की आहुति देना, यही इस परम्परा का आदर्श है ।
श्रमण संस्कृति :
यह धारा मानव के उन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है जो उसके वैयक्तिक स्वार्थ से भिन्न हैं । दूसरे शब्दों में, श्रमण परम्परा साम्य पर प्रतिष्ठित है । यह साम्य मुख्यरूप से तीन बातों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org