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तत्वविचार
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जैनाचार्य सत्, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ, तत्त्वार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में करते रहे हैं। जैन दर्शन में तत्त्वसामान्य के लिए इन सभी शब्दों का प्रयोग हुआ है। अन्य दर्शनों में इन शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ हो, ऐसा नहीं मिलता । वैशेषिकसूत्र में द्रव्यादि छः को पदार्थ कहा है, किन्तु अर्थसंज्ञा द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों की ही रखी गई है। सत्ता के समवाय सम्बन्ध से द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों को ही सत् कहा गया है। न्यायसूत्र में आनेवाले प्रमाणादि सोलह तत्त्वों के लिए भाष्यकार ने सत् शब्द का प्रयोग किया है। सांख्य प्रकृति और पुरुष इन दो को ही तत्त्व मानता है। ____ इस पृष्ठभूमि को समझ लेने के बाद हम तत्त्व के स्वरूप की ओर बढ़ते हैं । यह हम जानते हैं कि जैन दर्शन तत्त्व और सत् को एकार्थक मानता है। द्रव्य और सत् में भी कोई भेद नहीं है, यह बात उमास्वाति के 'सत् द्रव्यलक्षणम्' इस सूत्र से सिद्ध होती है। सर्वार्थसिद्धि और श्लोकवार्तिक में यह सूत्र स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध होता है किन्तु राजवार्तिक में यह बात उत्थान में ही कही गई है । तत्त्वार्थभाष्य में उपर्युक्त सूत्र भावरूप से लिखा गया है। कुछ भी हो, उमास्वाति सत् और द्रव्य को एकार्थक मानते थे। द्रव्य का क्या लक्षण है ? इसके उत्तर में उमास्वाति ने कहा कि द्रव्य का लक्षण सत् है। जो सत् है वही द्रव्य है। जो
१. वैशेषिकसूत्र, १. १. ४. २. वही, ८. २. ३. ३. वही, १. १.८. ४, तत्त्वार्थसूत्र, ५. २६.
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