Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्वविचार
११७ मादर्शवाद और जैन दर्शन की इस मान्यता में और अधिक समानता है क्योंकि वे भेद को मिथ्या नहीं कहते । आध्यात्मिकता और भौतिकता का भेद वहां पर भी भेद की दीवार खड़ी कर ही देता है । तथापि जैनदृष्टि और हेगल एवं ब्रेडले की दृष्टि में काफी समानता है। जनदृष्टि से जीव और अजीव दोनों समान रूप से सत् हैं। न जीव अजीव हो सकता है और न अजीव जीव बन सकता हैं। दोनों सत् हैं, किन्तु दोनों भिन्न स्वभाव वाले होकर ही सत् हैं। सत्ता उनका स्वभाव-भेद दूर नहीं कर सकती, क्योंकि स्वभाव-भेद सत् है-यर्थार्थ है-पारमार्थिक है। तत्त्व जड़ और चेतन उभयरूप से सत् है । जड़ और चेतन को छोड़कर सत्ता नहीं रह सकती। सम् का स्वरूप :
सत् के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा है कि सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है।' आगे जाकर इसी बात को 'गुण और पर्यायवाला द्रव्य है। इस प्रकार कहा है। उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय आया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन के सूचक हैं। ध्रौव्य नित्यता की सूचना देता है। गुण नित्यता-वाचक है और पर्याय परिवर्तन-सूचक । किसी भी वस्तु के दो रूप होते हैंएकता और अनेकता, नित्यता और अनित्यता, स्थायित्व और अस्थायित्व, सदृशता और विसदृशता। इनमें से प्रथम पक्ष ध्रौव्यसूचक है-गुणसूचक है। द्वितीय पक्ष उत्पाद और व्ययसूचक है-पर्यायसूचक है। वस्तु के स्थायित्व में एकरूपता
१. तत्त्वार्थसूत्र, ५. २६. २. वहीं, ५. ३७.
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