Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
१३२
जैन धर्म-दर्शन
रक है ।" बर्गसाँ के शब्दों में प्रत्येक वस्तु एक विशिष्ट प्रवाह की अभिव्यक्ति मात्र है। भेदवाद के उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि एकता जैसी कोई वस्तु नहीं । सब कुछ परिवर्तन एवं प्रवाहशील है। एकता की प्रतीति भ्रान्ति मात्र है | वास्तविक सत्य तो क्षणिकता ही है । यही क्षणिकता प्रवाह, परिवर्तन, अनित्यता और भेद-सूचक है । भेदभाव का यह विवेचन भारतीय और पाश्चात्य परम्परा की एतद्विषयक मान्यता को समझने के लिए काफी है ।
अभेदवाद का समर्थन करनेवाले भेद को मिथ्या कहते हैं । उनकी दृष्टि में एकत्व का ही मूल्य है, अनेकरूपता की कोई कीमत नहीं । जितने भेद या अनेक रूप हैं, सब मिथ्या हैं । हमारा अज्ञान भेद की प्रतीति में कारण है । अविद्याजनित संस्कारों के कारण भेद और अनेकरूपता की प्रतीति होती है । ज्ञानियों की प्रतीति हमेशा अभेद-मूलक होती है । तत्त्व अभेद में ही है, भेद में नहीं । दूसरे शब्दों में, अभेद ही तत्त्व है । भारतीय परम्परा में उपनिषद् और वेदान्त के कुछ समर्थक अभेदवाद का समर्थन करते हैं। अभेदवादी एक ही तत्त्व मानता है क्योंकि अभेद की अन्तिम सीमा एकत्व है । वह एकत्व अपने आप में पूर्ण व अनन्त होता है । जहाँ पूर्णता होती है वहाँ एकत्व ही होता है, क्योंकि दो कदापि पूर्ण नहीं हो सकते । जहाँ दो होते हैं वहाँ दोनों अपूर्ण व सीमित होते हैं । असीम व पूर्ण एक ही हो सकता है । इसी हेतु के आधार पर भारतीय आदर्शवाद का प्रबल समर्थक अद्वैत वेदान्त
1. The passing thought itself is the thinker.
2. Everything is a manifestation of the flow of Elan Vital,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org