Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
१३३ एक तत्त्व में विश्वास रखता है। विज्ञानवाद और शून्यवाद की अन्तिम भूमिका में भी इसी विचारधारा के दर्शन होते हैं।
पाश्चात्य परम्परा में पार्मेनिडीस अभेदवाद का प्रवर्तक कहा जा सकता है। उसने कहा कि परिवर्तन वास्तविक नहीं है क्योंकि वह बदल जाता है । जो वस्तु वास्तविक एवं सत्य है वह कदापि नहीं बदल सकती । जो बदल जाती है वह सत्य नहीं हो सकती। इन सारे परिवर्तनों के बीच में जो नहीं बदलता है वही सत्य है । जो अपरिवर्तनशील है वह सत् है, जो परिवर्तनशील है वह असत् है । जो सत् है वही वास्तविक है । जो असत् है वह वास्तविक नहीं है । जो सत् है वह हमेशा मौजूद है क्योंकि वह पैदा नहीं हो सकता । यदि सत् पैदा होता है तो वह असत् से पैदा होगा, किन्तु असत् से सत् पैदा नहीं हो सकता।' यदि सत् सत् से पैदा होता है तो वह पैदा नहीं होता क्योंकि वह स्वयं सत् है। पैदा तो वह होता है जो सत् न हो । जो सत् न हो वह पैदा हो ही नहीं सकता, इसलिए जो वास्तविक है वह सब सत् है। सत् होने से सब एक है। जो सत् है वह सत् ही है, अत: वहाँ भेद का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जहाँ कोई भेद नहीं है वहाँ अभेद ही है । इस प्रकार अभेदवाद की सिद्धि करनेवाला पार्मेनिडीस भेद को इन्द्रियजन्य भ्रान्ति बताता है। जितने भेद दृष्टिगोचर होते हैं, सब इन्द्रियों के कारण हैं। हेराक्लिटस ने अभेद की प्रतीति में जो कारण बताया, पार्मेनिडीस ने वही कारण भेद की प्रतीति में दिया। अभेद की प्रतीति ही सच्ची प्रतीति है और वह हेतुवाद के आधार पर सिद्ध की जा सकती है । यह बात पार्मेनिडीस ने कही। जेनो ने अनेकता का तर्कसंगत
1. Ex nihilo nihil fit.
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