Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार अर्थ है।' यहाँ पर आत्मा एक द्रव्य है और सामायिक आत्मा की अवस्था-विशेष है अर्थात् पर्याय है । सामायिक आत्मा से भिन्न नहीं है अर्थात् पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं है । यह द्रव्य और पर्याय की अभेददृष्टि है। इस दृष्टि का समर्थन आपेक्षिक है। किसी अपेक्षा से आत्मा और सामायिक दोनों एक हैं, क्योंकि सामायिक आत्मा की ही एक अवस्था है-आत्मपर्याय है, अतः सामायिक आत्मा से अभिन्न है। अन्यत्र द्रव्य और पर्याय के भेद का भी समर्थन किया गया है। 'अस्थिर पर्याय का नाश होने पर भी द्रव्य स्थिर रहता है। इस वाक्य से स्पष्ट भेददृष्टि झलकती है। यदि द्रव्य और पर्याय का सर्वथा अभेद होता तो पर्याय के नष्ट होते ही द्रव्य भी नष्ट हो जाता । इसका अर्थ यह है कि पर्याय ही द्रव्य नहीं है । द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न भी हैं। द्रव्य की पर्यायें बदलती रहती हैं किन्तु द्रव्य अपने आप में नहीं बदलता। द्रव्य का गुण कभी नष्ट नहीं होता, भले ही उसकी अवस्थाएं मिटती रहें और पैदा होती रहें। पर्यायदष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया जा सकता है और द्रव्यदृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के अभेद की पुष्टि की जा सकती है। दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के भेद और अभेद की कल्पना करना ही महावीर को अभीष्ट था।
इस प्रकार आत्मा और ज्ञान के विषय में भी महावीर ने वही बात कही है। ज्ञान आत्मा का एक परिणाम है। वह १. आया णे अज्जो ! सामाइए आया णे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे ।
-~-भगवतीसूत्र, १६.७६. २. से नूणं भंते अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ- वही. ३.. आचारांग, १. ५. ५.
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