Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन जा सकती है । आत्मा के ज्ञानादि गुण की तरतमता की मात्राओं का विचार करने से अनन्तप्रकारता की सिद्धि हो सकती है। ये सारे भेद एक नारक में कालभेद से घट सकते हैं। ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्याय कालभेद के आधार से ही होते हैं । एक जीव कालभेद से अनेक पर्यायों को धारण करता है । ये पर्याय ऊर्ध्वता सामान्याश्रित विशेष हैं। यही ऊर्ध्वता विशेष का लक्षण है।
द्रव्य के ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा जाता है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में इस प्रकार के परिणामों का वर्णन है। विशेष और परिणाम दोनों द्रव्य के पर्याय है, क्योंकि दोनों परिवर्तनशील हैं। परिणाम में काल-भेद की प्रधानता रहती है जब कि विशेष में देश-भेद मुख्य होता है। जो काल की दृष्टि से परिणाम हैं वे ही देश की दृष्टि से विशेष हैं। इस प्रकार पर्याय, विशेष, परिणाम, उत्पाद और व्यय प्रायः एकार्थक हैं। द्रव्य-विशेष की विविध अवस्थाओं में इन सभी शब्दों का समावेश हो जाता है ।
द्रव्य और पर्याय का स्वरूप समझ लेने के बाद यह जानना भी आवश्यक है कि द्रव्य और पर्याय का सम्बन्ध क्या है ? द्रव्य और पर्याय भिन्न हैं या अभिन्न ? इस प्रश्न को सामने रखते हुए महावीर ने जो विचार हमारे सामने रखे उन पर एक सामान्य दृष्टि डालना ठीक होगा। भगवतीसूत्र में पार्श्वनाथ के शिष्यों और महावीर के शिष्यों में हुए एक विवाद का वर्णन है । पार्श्वनाथ के शिष्य यह कहते हैं कि उनके प्रतिपक्षी सामायिक का अर्थ नहीं जानते । महावीर के शिष्य उन्हें समझाते हैं-आत्मा ही सामायिक है । आत्मा ही सामायिक का
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