________________
१२४
जैन धर्म-दर्शन मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर हैं, यावत् अनन्त सिद्ध हैं। यही कारण है कि जीवपर्याय अनन्त हैं।' इस चर्चा में जो पर्याय विवक्षित हैं वे तिर्यक् विशेष की अपेक्षा से हैं क्योंकि ये पर्याय अनेक देशों में रहने वाले विभिन्न जीवों से सम्बन्धित हैं । इनमें सभी जीवों का समावेश हो जाता है, अतः अनेक जीवाश्रित पर्याय होने से तिर्यक् विशेष हैं।
ऊर्ध्वता विशेष की दृष्टि से सोचने पर विशेष का आधार दूसरा हो जाता है। यदि हम कहें कि प्रत्येक जीव के अनन्त पर्याय हैं और किसी जीव-विशेष के विषय में सोचें तो हमारा दृष्टिकोण ऊर्ध्वता विशेष को विषय करता है। उदाहरण के तौर पर एक नारक जीव को लेते हैं। उसके अनन्त पर्याय होते हैं । जीव-सामान्य के अनन्त पर्यायों का कथन तिर्यक् सामान्याश्रित पर्याय की दृष्टि से है, किन्तु विशेष नारकादि के अनन्त पर्यायों का कथन ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्याय की दृष्टि से है। एक नारक-विशेष के अनन्त पर्याय कैसे हो सकते हैं, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है :
एक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है। प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है । अवगाहना की अपेक्षा से स्यात् चतुःस्थान से हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् चतुःस्थान से अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से अवगाहना के समान है किन्तु श्यामवर्णपर्याय की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थान हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् षट्स्थान अधिक है। इसी प्रकार शेष वर्णपर्याय, दोनों गन्धपर्याय, पाँचों रसपर्याय, आठों स्पर्शपर्याय, मतिज्ञान और मत्यज्ञानपर्याय, श्रुतज्ञान और श्रुताज्ञानपर्याय, अवधिज्ञान और
१. भगवतीसूत्र, २५. ५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org