Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
१२३ एकत्व अथवा ध्रौव्यसूचक अंश को ऊर्ध्वता सामान्य कहा जाता है। उदाहरण के लिए जब यह कहा जाता है कि जीव द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत है' और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत है तब जीवद्रव्य का अर्थ ऊर्ध्वता सामान्य से है। जब यह कहते हैं कि अव्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से नारक शाश्वत है। तव अव्युच्छित्ति नय का विषय जीव ऊर्ध्वता सामान्य से विवक्षित है। इस प्रकार जहाँ किसी जीव-विशेष या अन्य पदार्थ-विशेष की अनेक अवस्थाओं का वर्णन किया जोता है वहाँ एकत्व अथवा अन्वयसूचक पद ऊर्ध्वता सामान्य की दृष्टि से प्रयुक्त होता है।
जिस प्रकार द्रव्य या सामान्य दो प्रकार का है उसी प्रकार पर्याय अथवा विशेष भी दो प्रकार का है। तिर्यक सामान्य के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हों वे तिर्यक विशेष हैं और ऊर्ध्वता सामान्याश्रित जो पर्यायें हों वे ऊर्ध्वता विशेष हैं। अनेक देशों में जो भिन्न-भिन्न द्रव्य या पदार्थ-विशेष हैं वे तिर्यक् सामान्य की पर्यायें हैं। वे तिर्यक् विशेष हैं। अनेक कालों में एक ही द्रव्य की अर्थात् ऊर्ध्वता सामान्य की जो विभिन्न अवस्थाएं हैं-जो अनेक विशेष अथवा पर्यायें हैं वे ऊर्ध्वता विशेष हैं। जीवपर्याय कितने हैं ? इसके उत्तर में महावीर ने कहा कि जीवपर्याय अनन्त हैं। यह कैसे ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा कि असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार हैं, यावत् असंख्यात स्तनितकुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकाय हैं, यावत् असंख्यात वायुकाय हैं, अनन्त वनस्पति हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, यावत् असंख्यात
१. भगवतीसूत्र, ७. २. २७३. २. वही, ७. ३. २७६.
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