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तत्त्वविचार
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नित्य न होकर तद्द्भावाव्यय है । तद्भावाव्यय का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि जो अपने भाव को न तो वर्तमान में छोड़ता है और न भविष्य में छोड़ेगा वह नित्य है और वही तद्भावाव्यय है ।" उत्पाद और व्यय के बीच में जो हमेशा रहता है वह तद्भावाव्यय है । सत्ता नामक कोई भिन्न पदार्थ नहीं है जो हमेशा एक-सा रहता है । वस्तु स्वयं ही त्रयात्मक है । तत्त्व स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त है । पदार्थ स्वतः सत् है । सत्ता सामान्य के सम्बन्ध से सत् मानने में अनेक दोषों का सामना करना पड़ता है । जो सत है वही पदार्थ है क्योंकि जो सत् न हो और फिर भी पदार्थ हो, यह परस्पर विरोधी बात है । जो सर्वथा असत् है वह सत्ता के सम्बन्ध से भी सत् नहीं हो सकता, जैसे गगनारविन्द | सत् और असत् से भिन्न कोई ऐसी कोटि नहीं जिसमें पदार्थ रखा जा सके | इसलिए द्रव्य न स्वतः सत् है न स्वतः असत् है किन्तु सत्ता के सम्बन्ध से सत् है, यह कहना ठीक नहीं । द्रव्य सत् होकर ही द्रव्य हो सकता है। जो सत् न हो वह द्रव्य नहीं हो सकता । सत्ता नामक कोई ऐसा पदार्थ उपलब्ध नहीं होता जिसके सम्बन्ध से द्रव्य सत् होता हो । कदाचित् ऐसा पदार्थ मान भी लिया जाय फिर भी समस्या हल नहीं हो सकती, क्योंकि उस पदार्थ का खुद का अस्तित्व खतरे में है । वह स्वतः सत् है या नहीं ? यदि वह स्वतः सत् है तो यह सिद्धान्त कि 'पदार्थ सत्ता के सम्बन्ध से ही सत् होता है' खण्डित हो जाता है । यदि वह स्वतः सत् नहीं है और उसकी सत्ता के लिए किसी अन्य सत्ता की आवश्यकता रहती है तो अनवस्था दोष का
२. यत् सतो भावान्न व्येति न व्येष्यति तन्नित्यम् ।
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- तत्त्वार्थभाष्य, ५.३०.
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