Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन होती है, स्थिरता होती है । अस्थायित्व (परिवर्तन) में पूर्व रूप का विनाश होता है, उत्तर रूप की उत्पत्ति होती है । वस्तु के विनाश और उत्पाद में व्यय और उत्पत्ति के रहते हुए भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती और न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होती है । विनाश और उत्पाद के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है जो न तो नष्ट होती है और न उत्पन्न। यह जो स्थिरता या एकरूपता है वही ध्रौव्य है-नित्यता है। इसी को 'तद्भावाव्यय' कहते हैं। यही नित्य का लक्षण है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की व्याख्या इस प्रकार की है-जो अपरित्यक्त स्वभाववाला है, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है, गुण और पर्याययुक्त है वही द्रव्य है । द्रव्य और सत् एक ही है, इसलिए यही लक्षण सत् का भी है। तत्त्वार्थसूत्र के 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्यायवद्रव्यम्' और 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' इन तीनों सूत्रों को एक ही गाथा में बाँध दिया। सत्ता का लक्षण बताते हुए अन्यत्र भी उन्होंने यही बात लिखी है। इस प्रकार जैन दर्शन में सत् एकान्तरूप से नित्य या अनित्य नहीं माना गया है। वह कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है। गुण अथवा अन्वय की अपेक्षा से वह नित्य है और पर्याय की दृष्टि से वह अनित्य है। कूटस्थ नित्य होने पर उसमें तनिक भी परिवर्तन नहीं हो सकता और सर्वथा अनित्य होने पर उसमें १. तत्त्वार्थसूत्र, ५.३०. २. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादब्वयधुवक्तसंजुत्तं । गुणवं च सपज्जायं, जं तं दव्वं ति बुच्चंति ॥
-प्रवचनसार, २. ३. ३. सत्ता सव्वपयत्था, सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगुप्पादधु वत्ता, सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥
-पंचास्तिकायसार, गा० ८.
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