Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
बताते समय काल को पृथक् क्यों नहीं गिनाया ? स्वयं भगवती - सूत्र में ही अन्यत्र काल की स्वतन्त्र रूप से गणना की गई है, ' तो फिर उपर्युक्त संवाद में काल को स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं गिनाया ?
इसका समाधान यही हो सकता है कि यहाँ पर काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य दोनों के अन्तर्गत मान लिया गया है। जीव और अजीव - चेतन और अचेतन दोनों का स्वरूप वर्णन परिवर्तन के बिना अपूर्ण है । परिवर्तन का दूसरा नाम वर्तना भी है । वर्तना प्रत्येक द्रव्य का आवश्यक एवं अनिवार्य गुण है । वर्तना के अभाव में द्रव्य एकान्तरूप से नित्य हो जायगा । एकान्त नित्य पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकता । अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में पदार्थ असत् है । ऐसी स्थिति में वर्तना - परिणाम - क्रिया - परिवर्तन द्रव्य का आवश्यक धर्म है । प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से ही परिवर्तनशील है, अतः काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं। दूसरी बात यह मालूम होती है कि भगवतीसूत्र के उपर्युक्त संवाद में अस्तिकाय की दृष्टि से लोक का विचार किया गया है । जहाँ पर काल की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई है वहाँ पर उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है । इसलिए. महावीर ने पंचास्तिकाय में काल की पृथक् गणना नहीं की । काल-विषयक प्रश्न के ये दो समाधान हो सकते हैं । जहाँ पर काल की पृथक् गणना की गई है वहाँ पर छः द्रव्य गिनाये गए हैं । इन द्रव्यों का स्वरूप समझने से पहले हम तत्त्व का अर्थ समझ लें तो अच्छा रहेगा । तत्त्व का सामान्य अर्थ समझ लेने पर तत्त्व के भेदरूप द्रव्यों का स्वरूप समझना ठीक होगा ।
१. वही, २५. २, २५. ४.
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